डर मनुष्य को उस कार्य को करने से रोकता है जिसे वह अंजाम देना चाहता है लेकिन जहां भय समाप्त हो जाता है वहां उसे इस कार्य को करने से रोकना असंभव हो जाता है। हमारा समाज ना जाने किस पथ पर अग्रसर है जहां समाजजन दूराचारियों से भ्रष्टाचारियों और अपराधियों के आगे नतमस्तक है।
बेटी बचाओं बेटी पढ़ाओं का नारा देने वाली सरकार केवल राजनीतिक लाभ के लिए दिखावा कर रही है आज बेटियॉं सुरक्षित ही नहीं है। आजकल एक और झूमला सामने आ रहा है बेटी छुपाओं,,,तो क्या हमारे घर की बहु-बेटियों को घर में छुपा कर रख ले? क्या उनके अधिकारों को छिन ले? कई सवाल है जो हर एक के मन में घुम रहे होगेंलेकिन मोन है। ये दुष्कर्मी इंसान तो हो ही नही सकते, ये िपसाच ही है और ऐसे पिसाचों को तो मौत की सजा भी कम है।
मध्यप्रदेश 12 साल से कम उम्र की बच्चीयों से दुष्कर्म करने वाले आरोपी को फांसी की सजा वाले विधेयक को मंजुरी देकर देश का पहला राज्य बना जिसमें फांसी या 14 वर्ष का सश्रम कारावास शामिल है। फिलहाल विधेयक राष्ट्रपती की मंजुरी के लिए भेजा गया है। लेकिन क्या हम केवल अपने राज्य के लिए सोचेंगे भारत की हर एक बच्ची से क्या हमारा कोई संबंध नहीं है और यह विधेयक उम्र के बंधन में क्यों? और सम्पूर्ण भारत में एक जैसा कानून क्यो बन पा रहा है। एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2016 में भारत में दुष्कर्म के 28947 मामले दर्ज हुए थे। माना कि कुछ मामले झुठे भी हो पर ये आंकड़ा उन झुठे प्रकरणों के सामने नगण्य होगें। कठुआ और उन्नाव के बाद ग्वालियर में तो रिश्तों को ही शर्मसार कर दिया एक सौतेले बाप ने 9 साल की मासूम को अपनी हवस का शिकार बनाया। मध्यप्रदेश की बात करे तो यहां भी दूराचारियों के हौंसले बुलंद है हाल ही में भोपाल के बैरागढ़ क्षेत्र में 7 अप्रैल को 9 साल की मासुम बच्ची से उसी के घर में घुसकर नट्टू उर्फ मोनू जाटव ने दुष्कर्म किया। 24 मार्च को भोपाल में ही 20 वर्षीय कॉलेज छात्रा के साथ सामुहिक दुष्कर्म किया गया। आखीर क्यों इन बच्चीयों से उनकी खूशियों को छिना जा रहा है। भारत देश इस तरह बदल रहा है यकिन नहीं होता। एनसीआरबी की 2016 की रिपोर्ट के अनुसार दुष्कर्म के मामले मे मध्यप्रदेश पहले स्थान पर रहा जहां 4882 मामले दर्ज हुए जो 2015 के मुकाबले 12 प्रतिशत अधिक थे। कई मामलों में तो दुष्कर्म की शिकार महिला या बच्चीयों को ही सबुत मिटाने के लिए मौत के घाट उतार दिया जाता है। क्या उन्हें न्याय नहीं मिलना चाहिए। न्याय की उम्मीद में कई वर्ष बीत जाते है। फरियादी को डराया जाता है। कि वह अपना केस वापस ले ले नहीं तो जान से मार डालेगें यहां भी डर के कारण पीड़ीता या उसका परिवार अपनी जान की रक्षा के लिए केस वापस ले लेता है या समझोता कर लेता है। क्योकि उन्हें पता है वो कटपुटली की तरह नांचने वाली पूलिसियाई प्रणाली और रसुखदारों और नेताओं से नहीं लड़ पाएगें। और दुष्कर्मी बैखोब होकर घुमते नजर आंएगे। भारतीय कानून व्यवस्था की यदि हम बात करें तो यहां कानून को अपने हाथ की कठपुतली बनाना कोई असंभव कार्य नहीं। भारतीय फिल्म निर्माताओं ने सत्य घटनाओं से प्रेरित होकर कई फिल्में दी। जिनमें कानून का रखवाला ही कानून को तोड़ता है, पुलिस वाला गुण्डा, अंधा कानून आदि कई फिल्में है। यहां जब तक मीडिय़ा में किसी घटना को बार-बार नहीं दिखाया जाता है। जब तक सोए हुए इंसान की इंसानियत उसे धिक्कार नहीं देती है। उस घटना को चाय की चुस्कीयों के साथ भूल जाना आम लोगों की दिनचर्या हो जाती है, सोशल मीडिया पर ग्रुप में मैसेज कर दिया। खबर को सोशल मीडिया में वायरल करने के बाद काम खत्म हो जाता है। कई घटनाएं तो दबा दी जाती है साथ ही फरियादी को डराया और धमकाया जाता है या फिर प्रलोभन दिया जाता है। जब इन सब से बात ना बने तो मार दिया जाता है। इन सब में मूकदर्शक पुलिस जिसे सबकुछ पता होता है कि अपराधी कोन है लेकिन वे उसे बचाने के लिए किसी निर्दोश पर आरोप मढ़ देते है। बाप का कौन बाप,,, पूलिस का अपना राज।
हाल ही हुई शर्मनाक घटनाएं जो इस समाज के विकृत लोगों का असली चेहरा सामने ला रहा है लेकिन कहीं न कहीं उसे बचाने के लिए एक दल सक्रिय रहा। रासना गांव कठुवा जिले की आसिफा के साथ जो हुआ वो शर्मसार करने वाली घटना है। यहां ऐसे लोगों की कोई जाति या धर्म नहीं होता ये वो वहशी दरिंदे है जिन्हें हम लोग ही छोड़ देते है। यहां घटना को धार्मिक चोला पहना दिया गया है। मानवता शर्मसार है इस बात को हम नहीं समझ पा रहे है। भारत में आज तक ऐसे दरिंदों के लिए फांसी की सजा का कोई कानून नहीं बना। यही कारण है की इनको कोई भय नहीं है। उन्नाव में तो अपराधी ही हमारे द्वारा चुना गया जनप्रतिनिधि निकला। जिसने अपने दम पर पीडि़त परिवारों के मुखिया को ही मौत की नींद में सुला दिया। तो क्या हम आंखें बंद कर केवल बीजेपी....कांगे्रस या अन्य पार्टियों के उम्मीदवार को ही चुनना हमारी मजबूरी है। क्या हम अच्छी छवी वाले उस उम्मीदवार को नहीं चुन सकते जो किसी पार्टी से नहीं है या फिर क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम खुद ही अपना उम्मीदवार चुनकर उसे चुनाव लड़ाकर एकतरफा जीत दिलाए ताकि समाज के लिए कुछ अच्छा सोचने वाले राजनीतिक बदलाव ला पाए। लेकिन ऐसा होगा नहीं क्योंकि हम बदलाव की प्रक्रिया में तब तक आगे नहीं आयेगे जब तक हमारे किसी व्यक्ति के साथ ऐसा नहीं होगा। दिल्ली की दामिनी के मामले में भी पूरा भारत एक होता नजर आया था। तब ऐसा लग रहा था कि शायद ऐसे दरिंदों के लिए कोई सख्त कानून बन जाए लेकिन बस पुलिस को एक निर्भया टीम दे दी गई। लेकिन ऐसी घटनाएं रूकने का नाम नहीं ले रही है। सच तो यह है हमारी आत्मा मर चुकी है जो नारी को सम्मान और आजादी से जीने नहीं दे रही है। आखिर क्यों ऐसे दरिंदों को फांसी की सजा या नपुसंक बनाने का कानून नहीं बन पा रहा है। कुछ दिनों तक मीडिया इस खबर दिखाती है, हम टीवी चैनल बदलकर देखते रहेंगे की किस चैनल ने क्या नया खुलासा किया है। उस समाज या धर्म के कुछ लोग सड़कों पर उतरेंगें, कहीं कैंडल मार्च करेंगे, कहीं श्रृद्धांजलि सभाएं आयोजित करेंगें और फिर कुछ दिनों बाद भूल जायेंगे। जब तक फोटोछाप नेताओं को कोई नया मुद्दा नहीं मिल जाता बयान देते रहेगें। और हम केवल मुकदर्शक बने रहेगें।
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