12 जून को संपूर्ण विश्व में विश्व बालश्रम दिवस मनाया गया कई जगह इस दिवस को मनाने के लिए भी लाखों रूपए हवन कर दिए गए लेकिन मध्यप्रदेश के कई जिलों में इस दिवस को याद तक नहीं िकया गया। अभिशाप बना यह बाल मजदूरी का कलंक देश के मुस्कुरातें हुए बचपन का अंत है। तो क्या इस यह एक प्रथा है जिसे खत्म करने के लिए हमें किसी अवतारी का इंतजार करना पड़ेगा।
ऐ छोटू,,,, ऐ बारीक इधर आ, चाय लाना,,,,
आदि शब्द काे सुनकर कुछ तो ध्यान में आ ही गया होगा, जी हां हम बात कर रहे है ऐसे ही बाल श्रमिकों की, जो हमारे एक आर्डर पर हाजिर हाेकर हमें बड़ों से अच्छी सर्विस दे देते है, क्योंकि ये नादान है इन्हें अपनी क्षमता का सही उपयोग नहीं पता। हॉटलों व चाय की दुकानों में और घरों में इनकी उपस्थिति से कोई इंकार नहीं कर सकता। लेकिन फिर भी लगातार जारी है बाल मजदूरी। आखिर कहां गई सरकार की योजनाएं? कहां गया संविधान का मौलिक अधिकार जिसमें 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को केवल बेहतर शिक्षा का प्रावधान है? बैमानी है धारा 24 जिसमें कसी कारखाने या खदान में कार्य पर प्रतिबंध है। बैमानी है धारा 39-ई जिसमें मजदूरों के बच्चों का शोषण न होने की बात कही गई है। बैमानी है धारा 39-एफ जो बच्चों को नैितक व भोतिक दुरूपयोग से बचाती है। बैमानी है धारा 45 जाे 14 साल से कम उम्र के सभी बच्चों को 100 प्रतिशत मुफ्त शिक्षा देने का आदेश देती है। निमार्ण कार्य में लगे आदिवासियों के बच्चों का क्या भविष्य। क्या यहां केवल मजदूर का बेटा मजदूर ही पैदा होता रहगा। हर जिले में गर कलेक्टर सख्ती दिखाए तो मजाल कही बालश्रमिक मिल जाएं पर ये मेरे केवल खयाली पुलाव है यहां हकीकत में सरकार के नुमाइंदे काे क्या इन मासुमों का मुरझाता बचपन नजर ही नहीं आता उनके बच्चें ठीक बाकी भले कोई मांगे भीख।
बचपन होता है पढ़ने-लिखने, हंसने और मस्ती करने के लिए लेकिन ये बचपन बालश्रम की कुप्रथा के चलते लाखों बच्चों का मासुम बचपन छिन जाता है। केवल चंद रूपए की खातीर खुद माँ बाप अपनें बच्चों के हाथों में कलम छिन कर काम का बोझ डाल देते है। आंकड़े बताते है कि भारत में लगभग 5 करोड़ बाल श्रमिक अपने बचपन को पचपन जैसा जीने के मजबुर है। यहां उनसे काम तो अधीक लिया जाता है परंतु खाने को आधा पेट भर जाए इतना ही खाने को दिया जाता है। घरेलु नौकरों की तो अौर भी हालात खराब है जहां इनसे 18 घंटे तक काम लिया जाता है जहां उन्हें मानसिक शारिरीक प्रताड़ना भी दी जाती है। कई बच्चें मंदिरों, सड़कों और गली मोहल्लों में भीख मांगते देखे जा सकते है ये वो कुनबा है जिसे तरस खाकर हर कोई नजरअंदाज कर देता है। क्या भीख देने से उनकी मदद हो जाएगी। नहीं ना तो फिर हमारी मानसीकता को बदलने की क्यों जरूरत महसुस नहीं होती, जीन घरों में बालश्रमिक है वो पढ़े-िलखे नही है समझदार नही है। आखिर उनकी संवेदनाएं क्यों शून्य हो चली है। क्या इन बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए बालश्रम से मुक्ती दिलाकर उनके पढ़ने लिखने का प्रबंध नहीं कर सकते। क्यां हम ऐसी जगहों का बहिस्कार नहीं कर सकते जहां बालश्रमिक सेवा में लगे है।
<br>अभी कुछ दिनों पहले की ही बात है मैं एक चाय की दूकान पर चाय पी रहा था जहां मुझें लगभग 12 साल का एक बच्च काम करते दिखाई दिया। मैने पहले तो दुकानदार से बात की कि बच्चें को काम पर क्यों रखा था तो दुकानदार कहता है, कौनसा बच्चा ये तो 15 साल का है,,,,इस जवाब से एक बात तो साफ हो गई थी कि दुकानदार को ये ज्ञान तो था कि 14 साल से कम उम्र के बच्चों को काम पर रखना कानूनन अपनाध है,,, जब मेने बच्चें को पुछा कि काम पर किसने भेजा तो बोलता है पापा ने। मेने फिर दूसरा सवाल किया की पापा क्या करते है,,, तो उसका जवाब था कुछ नहीं करते,,, दारू पिते है।
एक 12 साल का बच्चा अपना पुत्र धर्म निभाकर पिता की दारू के लिए काम करता है। ये है हमारे महान देश की व्यथा जहां बचपन अंधकार में खो रहा है। हमारा देश वैसे तो महान है क्योकि यहां बड़े-बड़े अरबों-खरबों के घोटालें होना आम बात है, इस तथ्य से एक बात तो साफ है कि यहां रूपए की कोई कमी नहीं फिर भी महंगाई डायन जाती नहीं और गरीबी इस तरह हावी है कि लाखों लोगों को एक वक्त की रोटी तक नसीब नहीं हाेती और इसी गरीबी के चलते बालश्रमिकों को निर्माण कार्य, हाॅटलों, कारखानों में कार्य करना पड़ता है। ऐसा चलता है तो चलने दो, हमारा समाज ही नहीं चाहता कि बालश्रम की कुप्रथा समाप्त हो इन बच्चों के भविष्य की किसी को चिंता नहीं। सभी बस इस पर राजनैतिक रोटियां सेक रहे है। इन मासूमों के लिए जो देश का भविष्य है, कोई नेता सड़कों पर नहीं आता उलट उसके हाथ की चाय जरूर पी लेता है। हमारा देश आज विश्व की महान शक्तियों में गिना जाता है लेकिन यहां भावी भविष्य ही कमजोर है। मुरझाते बचपन की और और किसी का ध्यान नहीं है। रोटी-कपड़ा-मकान भी इन लोगों के िलए एक सपना सा प्रतीत होता है। बालश्रमिकों का जीवन की पशु के सामन ही है सिधे शब्दों में कहें तो ये बालश्रमिक कोल्हू का बेल ही है। पढ़ने-िलखने की उम्र में काम करने से इनमें मानसिक परिपक्वता भी नहीं आ पाती। बाल श्रमिक बड़े होते-होते केवल श्रमिक ही रह जाते है और ये अपने शरीर से भी एक दिन लाचार हो जाते है। जिंदगी की जद्दोजहद में ये मसुम ऐसे पीस रहे है, जैसे गेहूं के साथ धुन।
हर छोटे-बड़े शहरों में बाल श्रमिकों की संख्या सेकड़ों में हे लेकिन सरकार के अनुसार केवल कुछ है। सरकार द्वारा चलाए जा रहे राष्ट्रीय बालश्रम उन्मूलन महज कागजों में सिमट कर रह गया है। वास्तविक स्थति उन्हें भी पता है पर जमीनी स्तर पर कार्य कोई नहीं करना चाहता। कई सामाजिक संस्थाएं हल्ला करती है इस क्षेत्र में कार्य करने की यहां तक की राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय अनुदान भी प्राप्त करती है लेकिन कार्य दो कोड़ी का नहीं। जरूरत है हमारी मानसिकता बदलने की तभी इस दिशा में सकारात्मक बदलाव होगा।
(एस.सी.के. सूर्योदय)
SCK Suryodaya
Reporter & Social Activist
sck.suryodaya@gmail.com
Cell: 7771848222
ऐ छोटू,,,, ऐ बारीक इधर आ, चाय लाना,,,,
आदि शब्द काे सुनकर कुछ तो ध्यान में आ ही गया होगा, जी हां हम बात कर रहे है ऐसे ही बाल श्रमिकों की, जो हमारे एक आर्डर पर हाजिर हाेकर हमें बड़ों से अच्छी सर्विस दे देते है, क्योंकि ये नादान है इन्हें अपनी क्षमता का सही उपयोग नहीं पता। हॉटलों व चाय की दुकानों में और घरों में इनकी उपस्थिति से कोई इंकार नहीं कर सकता। लेकिन फिर भी लगातार जारी है बाल मजदूरी। आखिर कहां गई सरकार की योजनाएं? कहां गया संविधान का मौलिक अधिकार जिसमें 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को केवल बेहतर शिक्षा का प्रावधान है? बैमानी है धारा 24 जिसमें कसी कारखाने या खदान में कार्य पर प्रतिबंध है। बैमानी है धारा 39-ई जिसमें मजदूरों के बच्चों का शोषण न होने की बात कही गई है। बैमानी है धारा 39-एफ जो बच्चों को नैितक व भोतिक दुरूपयोग से बचाती है। बैमानी है धारा 45 जाे 14 साल से कम उम्र के सभी बच्चों को 100 प्रतिशत मुफ्त शिक्षा देने का आदेश देती है। निमार्ण कार्य में लगे आदिवासियों के बच्चों का क्या भविष्य। क्या यहां केवल मजदूर का बेटा मजदूर ही पैदा होता रहगा। हर जिले में गर कलेक्टर सख्ती दिखाए तो मजाल कही बालश्रमिक मिल जाएं पर ये मेरे केवल खयाली पुलाव है यहां हकीकत में सरकार के नुमाइंदे काे क्या इन मासुमों का मुरझाता बचपन नजर ही नहीं आता उनके बच्चें ठीक बाकी भले कोई मांगे भीख।
बचपन होता है पढ़ने-लिखने, हंसने और मस्ती करने के लिए लेकिन ये बचपन बालश्रम की कुप्रथा के चलते लाखों बच्चों का मासुम बचपन छिन जाता है। केवल चंद रूपए की खातीर खुद माँ बाप अपनें बच्चों के हाथों में कलम छिन कर काम का बोझ डाल देते है। आंकड़े बताते है कि भारत में लगभग 5 करोड़ बाल श्रमिक अपने बचपन को पचपन जैसा जीने के मजबुर है। यहां उनसे काम तो अधीक लिया जाता है परंतु खाने को आधा पेट भर जाए इतना ही खाने को दिया जाता है। घरेलु नौकरों की तो अौर भी हालात खराब है जहां इनसे 18 घंटे तक काम लिया जाता है जहां उन्हें मानसिक शारिरीक प्रताड़ना भी दी जाती है। कई बच्चें मंदिरों, सड़कों और गली मोहल्लों में भीख मांगते देखे जा सकते है ये वो कुनबा है जिसे तरस खाकर हर कोई नजरअंदाज कर देता है। क्या भीख देने से उनकी मदद हो जाएगी। नहीं ना तो फिर हमारी मानसीकता को बदलने की क्यों जरूरत महसुस नहीं होती, जीन घरों में बालश्रमिक है वो पढ़े-िलखे नही है समझदार नही है। आखिर उनकी संवेदनाएं क्यों शून्य हो चली है। क्या इन बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए बालश्रम से मुक्ती दिलाकर उनके पढ़ने लिखने का प्रबंध नहीं कर सकते। क्यां हम ऐसी जगहों का बहिस्कार नहीं कर सकते जहां बालश्रमिक सेवा में लगे है।
<br>अभी कुछ दिनों पहले की ही बात है मैं एक चाय की दूकान पर चाय पी रहा था जहां मुझें लगभग 12 साल का एक बच्च काम करते दिखाई दिया। मैने पहले तो दुकानदार से बात की कि बच्चें को काम पर क्यों रखा था तो दुकानदार कहता है, कौनसा बच्चा ये तो 15 साल का है,,,,इस जवाब से एक बात तो साफ हो गई थी कि दुकानदार को ये ज्ञान तो था कि 14 साल से कम उम्र के बच्चों को काम पर रखना कानूनन अपनाध है,,, जब मेने बच्चें को पुछा कि काम पर किसने भेजा तो बोलता है पापा ने। मेने फिर दूसरा सवाल किया की पापा क्या करते है,,, तो उसका जवाब था कुछ नहीं करते,,, दारू पिते है।
एक 12 साल का बच्चा अपना पुत्र धर्म निभाकर पिता की दारू के लिए काम करता है। ये है हमारे महान देश की व्यथा जहां बचपन अंधकार में खो रहा है। हमारा देश वैसे तो महान है क्योकि यहां बड़े-बड़े अरबों-खरबों के घोटालें होना आम बात है, इस तथ्य से एक बात तो साफ है कि यहां रूपए की कोई कमी नहीं फिर भी महंगाई डायन जाती नहीं और गरीबी इस तरह हावी है कि लाखों लोगों को एक वक्त की रोटी तक नसीब नहीं हाेती और इसी गरीबी के चलते बालश्रमिकों को निर्माण कार्य, हाॅटलों, कारखानों में कार्य करना पड़ता है। ऐसा चलता है तो चलने दो, हमारा समाज ही नहीं चाहता कि बालश्रम की कुप्रथा समाप्त हो इन बच्चों के भविष्य की किसी को चिंता नहीं। सभी बस इस पर राजनैतिक रोटियां सेक रहे है। इन मासूमों के लिए जो देश का भविष्य है, कोई नेता सड़कों पर नहीं आता उलट उसके हाथ की चाय जरूर पी लेता है। हमारा देश आज विश्व की महान शक्तियों में गिना जाता है लेकिन यहां भावी भविष्य ही कमजोर है। मुरझाते बचपन की और और किसी का ध्यान नहीं है। रोटी-कपड़ा-मकान भी इन लोगों के िलए एक सपना सा प्रतीत होता है। बालश्रमिकों का जीवन की पशु के सामन ही है सिधे शब्दों में कहें तो ये बालश्रमिक कोल्हू का बेल ही है। पढ़ने-िलखने की उम्र में काम करने से इनमें मानसिक परिपक्वता भी नहीं आ पाती। बाल श्रमिक बड़े होते-होते केवल श्रमिक ही रह जाते है और ये अपने शरीर से भी एक दिन लाचार हो जाते है। जिंदगी की जद्दोजहद में ये मसुम ऐसे पीस रहे है, जैसे गेहूं के साथ धुन।
हर छोटे-बड़े शहरों में बाल श्रमिकों की संख्या सेकड़ों में हे लेकिन सरकार के अनुसार केवल कुछ है। सरकार द्वारा चलाए जा रहे राष्ट्रीय बालश्रम उन्मूलन महज कागजों में सिमट कर रह गया है। वास्तविक स्थति उन्हें भी पता है पर जमीनी स्तर पर कार्य कोई नहीं करना चाहता। कई सामाजिक संस्थाएं हल्ला करती है इस क्षेत्र में कार्य करने की यहां तक की राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय अनुदान भी प्राप्त करती है लेकिन कार्य दो कोड़ी का नहीं। जरूरत है हमारी मानसिकता बदलने की तभी इस दिशा में सकारात्मक बदलाव होगा।
(एस.सी.के. सूर्योदय)
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