व्यक्ति एवं सामाजिक परिवर्तन में एक अवराेध जो कही ना कही मानव मन को विचलीत कर इसका कारण बन जाता है, वह है शत्रुता।
शत्रुता मानव मन में द्वेश्ता के भाव को उत्पन्न करता है जो षडयंत्र के रूप में बदले की भावना के जन्म का कारण बनता है, जिससे व्यक्ति के सभी प्रकार के विकास अवरूद्ध हो जाते है। अगर हम बात करे कि हमारा शत्रु कौन है तो कुछ परिस्थितियां या कारणों पर हम विस्तृत अध्ययन के पश्चात जो कारण सामने आये चर्चा करेगें।
जैसा कि आलेख के विषयवस्तु शत्रु कौन? से ही स्पष्ट हो जाता है कि शत्रु वह व्यक्ति या समुह जो कभी आपका भला नहीं चाहता या जिसे आपकी खुशी उनके दु:ख का कारण बनने लगती है। हमारे अध्ययन से यहां कुछ उदाहरणों से आपको अवगत करवा रहें है जिससे शत्रुओं का जन्म होता है जहां या तो आप किसीके जाने-अनजानें में शत्रु हो जाते है या आपकी कार्यप्रणाली या व्यवहार से आप या आपका कोई शत्रु हो जाता है।
यहां इस बात को भी आप भलीभाती जान ले कि जरूरी यह नहीं कि दोनों ही पक्ष एक-दूसरे से शत्रुता का भाव प्रदर्शित करते या रखते हो, कभी-कभी यह एक पक्षीय भी हो सकता है या दोनों और से लेिकन यह भाव उस विष की तरह है जिसका दंश सोचने-समझने की प्रणाली पर हावी होता है। शत्रुता कभी-कभी मंद गती से मारने वाला जहर भी साबित होता है।
यह तो सभी जानते है क शत्रुता कभी भी किसी का भलाई का कारक नहीं हाेता उलट यह भाव युद्ध की दिशा की और अग्रसर होता है और यह विचार या सोचना निरर्थक होगा कि कोई यह कहे कि युद्ध से कोई लाभ होगा।
युद्ध में किसी ना किसी की हार तो निश्चित हाेती है और यह युद्ध हानि या विनाष का कारण भी बनता है जिसकी भरपाई कई दिनों या वर्षो या सदियों में भी नहीं हो पाती।
इस तरह युद्ध में जितने वाला भी कुछ ना कुछ हारता जरूर है।
सामािजक एवं मानव कल्याण के लिए राज्यों एवं दो राष्ट्रों का युद्ध भी मानवजाति के लिए सार्वभौमिक ना होते हुए क्षेत्रिय भावना तक सिमीत होता है।
शत्रुता मानव मन का वह विकार है जो कई कष्टों का दाता बन जाता है, जिसमें महत्वपूर्ण व्यक्ति बैचेनी एवं मानसिक तनावता का आदि हो औरो का एवं साथ ही स्वयं का अहीत कर बैठता है।
शत्रुता का यह वृक्ष उसके मन के इस तरह फलीभुत होता है जो शत्रु का विनास या उसकी हानी से ही संतुष्ट होता है लेकिन ये सब भाव समाज में अपराधों में अति उत्प्रेरक का कार्य करता है इसलिए यहां यह भाव सम्पूर्ण रूप से तभी समाप्त होगा जब हम शत्रुता का ही विनाश करेंगे और इसके विनाश का महत्वपूर्ण शस्त्र क्षमा और तदोपरांत प्रेम भाव है।
यहां मानव मन को शत्रुओं के विनाश के लिए क्षमा करेंगे या शत्रुता होने पर शत्रु से क्षमा मांगेंगे।
अब यह भाव भी सबके मन को अभिमानित कर इस द्वेश्ता की समाप्ती का अवरोध है कि क्षमा आखिर मांगे कौन? या अपराधों को क्षमा करे कौन? पहल करे कौन? क्योकिं यहां अहं भाव का जन्म होता है। और यह अहं भाव तो स्वाभाविक लगभग सभी में होता है।
सामान्यत: मानव के मुख्य शत्रुओं में उसका अभिमान भी आता है तो सर्वप्रथम मनुष्य इस दोष का निवारण करें कि क्षमा करने वाला या क्षमा मांगने वाला छोटा नहीं होता उससे उसका कोई अहित नहीं होता। गलतियां तो सब से होती है बड़ा वही जो झुक जायें और किसी को क्षमा मांगने पर क्षमा दान दे दे।
इस सत्य को भी स्वीकार करें कि यदि आप क्षमा नहीं करते या क्षमा नहीं मांगते तो शत्रुता का यह रंग हमेशा अपना रंग दिखाता रहेगा जिसका रंग कभी-कभी लाल भी हो सकता है। और आपके जिवन में विष घोलता रहेगा यह एक ऐसा विष है जो धिरे-धिरे आपके या किसी अन्य के अहित का घौतक बनता है।
अत: हरेक मनुष्य समािजक व्यवस्था को सुधारे इसके लिए अति अावश्यक है कि सर्वप्रथम उसके स्वयं के ऐसे शत्रु जिनकी समाप्ति अित आवश्यक है वह है क्रोध, लालच, द्वेश्ता, स्वार्थ आदि। मनुष्य सभी को अपना मानते हुए सबसे प्रेम करें यदि भुलवश किसी से कोई गलती हो जाये तो दैविय गण को अपनाते हुए क्रोध को अपने वश में कर बिना द्वेश्ता कर अहंकार को त्याग कर बिना लालच एंव स्वार्थ भाव के क्षमा करें। शत्रु से भी प्रेम भाव रखे, प्रेम एवं क्षमा वह भाव है जो इस धरा को स्वर्ग बना सकता है, मानव मन और समाज को निर्मल करता है। माना कि आज का मनुष्य काम, क्रोध, लोभ,मोह, माया के भावों का आदि हो चुका है जो उसे भ्रमित करते है इसलिए जरूरी यह है कि वह जान ले कि यह जिवन ईश्वर द्वारा प्रदत्त वह अनमोल देन है जिसे हंसी-खुशी जियें । जितना मिला है उसी में संतुष्ट रहकर जिये।
हम यह भी आपकों नहीं कहते कि सबके लिए जियों, जियों अपने लिए, परिवार के लिए लेकिन वह जिवन प्रक्रिया किसी के अहित की बैला पर फला-फुला ना हो।
स्वार्थ सर्वे हिताय सर्वे सुखाय का घौतक बने तभी मानव जाित का उद्धार संभव है।
अत: सर्वे हिताय, सर्वे सुखाई की यह भावना ही शत्रु या शत्रुता का विनाषकारी शस्त्र है इसलिए ध्यान रखे निम्न कारणों का जिसके कारण आपका कोई शत्रु बन सकता है या आप किसी के शत्रु हो जाते है।
-अज्ञानता ।
-किसी के अच्छे या बुरे कार्यो में विघ्न उत्पन्न करना।
-प्रितस्पर्धा।
-जाने अनजाने में शारीरिक, मानसिक, आिर्थक हानी।
-सफलता से जलन।
-गलतफहमी।
-सहायता (करना या ना करना)
-धोखा देना।
-राजफास करना।
-विश्वाश को तोड़ना।
-हठधर्मिता।
-सामाजिक मान प्रतिष्ठा को ठेस पंहुचाना।
-स्वार्थी प्रवृत्ति।
-सच्चाई।
-झूठ बोलने पर।
-दया करने पर।
-चाहत पूर्ण ना होने पर।
-नर्फत करने पर।
-क्रोध करने पर।
-लालच करने पर।
-अंहकारी होने पर।
-सुन्दरता।
-किसी वस्तु एवं रूपयों का लेन-देन।
-कोई बात ना मानने पर।
-शर्त पूर्ण ना करने पर।
-वादा पूर्ण ना करने पर।
वैसे तो शत्रुता स्वाभािवक अर्थात जन्मजात एवं कृितम दो ही प्रकार की होती है यदि हम जन्मजात शत्रुता की बात करें तो यह शत्रुता हमें सांप एवं नेवलें से समझी जा सकती है तथा कृितम शत्रुता के प्रमुख कारण हम उपर बता चुके है।
जन्मजात शत्रुता को समाप्त करना मुश्किल काम है लेकिन कृतिम शत्रुता का समापन सर्वे हिताय, सर्वे सुखाय मन्त्र एवं प्रेमस्य धर्मो क्षमा के मुल मंत्र में निहीत है।
बहुत आनंद मिलता है किसी को क्षमा करके, आप भी किजिए।
शत्रुता मानव मन में द्वेश्ता के भाव को उत्पन्न करता है जो षडयंत्र के रूप में बदले की भावना के जन्म का कारण बनता है, जिससे व्यक्ति के सभी प्रकार के विकास अवरूद्ध हो जाते है। अगर हम बात करे कि हमारा शत्रु कौन है तो कुछ परिस्थितियां या कारणों पर हम विस्तृत अध्ययन के पश्चात जो कारण सामने आये चर्चा करेगें।
जैसा कि आलेख के विषयवस्तु शत्रु कौन? से ही स्पष्ट हो जाता है कि शत्रु वह व्यक्ति या समुह जो कभी आपका भला नहीं चाहता या जिसे आपकी खुशी उनके दु:ख का कारण बनने लगती है। हमारे अध्ययन से यहां कुछ उदाहरणों से आपको अवगत करवा रहें है जिससे शत्रुओं का जन्म होता है जहां या तो आप किसीके जाने-अनजानें में शत्रु हो जाते है या आपकी कार्यप्रणाली या व्यवहार से आप या आपका कोई शत्रु हो जाता है।
यहां इस बात को भी आप भलीभाती जान ले कि जरूरी यह नहीं कि दोनों ही पक्ष एक-दूसरे से शत्रुता का भाव प्रदर्शित करते या रखते हो, कभी-कभी यह एक पक्षीय भी हो सकता है या दोनों और से लेिकन यह भाव उस विष की तरह है जिसका दंश सोचने-समझने की प्रणाली पर हावी होता है। शत्रुता कभी-कभी मंद गती से मारने वाला जहर भी साबित होता है।
यह तो सभी जानते है क शत्रुता कभी भी किसी का भलाई का कारक नहीं हाेता उलट यह भाव युद्ध की दिशा की और अग्रसर होता है और यह विचार या सोचना निरर्थक होगा कि कोई यह कहे कि युद्ध से कोई लाभ होगा।
युद्ध में किसी ना किसी की हार तो निश्चित हाेती है और यह युद्ध हानि या विनाष का कारण भी बनता है जिसकी भरपाई कई दिनों या वर्षो या सदियों में भी नहीं हो पाती।
इस तरह युद्ध में जितने वाला भी कुछ ना कुछ हारता जरूर है।
सामािजक एवं मानव कल्याण के लिए राज्यों एवं दो राष्ट्रों का युद्ध भी मानवजाति के लिए सार्वभौमिक ना होते हुए क्षेत्रिय भावना तक सिमीत होता है।
शत्रुता मानव मन का वह विकार है जो कई कष्टों का दाता बन जाता है, जिसमें महत्वपूर्ण व्यक्ति बैचेनी एवं मानसिक तनावता का आदि हो औरो का एवं साथ ही स्वयं का अहीत कर बैठता है।
शत्रुता का यह वृक्ष उसके मन के इस तरह फलीभुत होता है जो शत्रु का विनास या उसकी हानी से ही संतुष्ट होता है लेकिन ये सब भाव समाज में अपराधों में अति उत्प्रेरक का कार्य करता है इसलिए यहां यह भाव सम्पूर्ण रूप से तभी समाप्त होगा जब हम शत्रुता का ही विनाश करेंगे और इसके विनाश का महत्वपूर्ण शस्त्र क्षमा और तदोपरांत प्रेम भाव है।
यहां मानव मन को शत्रुओं के विनाश के लिए क्षमा करेंगे या शत्रुता होने पर शत्रु से क्षमा मांगेंगे।
अब यह भाव भी सबके मन को अभिमानित कर इस द्वेश्ता की समाप्ती का अवरोध है कि क्षमा आखिर मांगे कौन? या अपराधों को क्षमा करे कौन? पहल करे कौन? क्योकिं यहां अहं भाव का जन्म होता है। और यह अहं भाव तो स्वाभाविक लगभग सभी में होता है।
सामान्यत: मानव के मुख्य शत्रुओं में उसका अभिमान भी आता है तो सर्वप्रथम मनुष्य इस दोष का निवारण करें कि क्षमा करने वाला या क्षमा मांगने वाला छोटा नहीं होता उससे उसका कोई अहित नहीं होता। गलतियां तो सब से होती है बड़ा वही जो झुक जायें और किसी को क्षमा मांगने पर क्षमा दान दे दे।
इस सत्य को भी स्वीकार करें कि यदि आप क्षमा नहीं करते या क्षमा नहीं मांगते तो शत्रुता का यह रंग हमेशा अपना रंग दिखाता रहेगा जिसका रंग कभी-कभी लाल भी हो सकता है। और आपके जिवन में विष घोलता रहेगा यह एक ऐसा विष है जो धिरे-धिरे आपके या किसी अन्य के अहित का घौतक बनता है।
अत: हरेक मनुष्य समािजक व्यवस्था को सुधारे इसके लिए अति अावश्यक है कि सर्वप्रथम उसके स्वयं के ऐसे शत्रु जिनकी समाप्ति अित आवश्यक है वह है क्रोध, लालच, द्वेश्ता, स्वार्थ आदि। मनुष्य सभी को अपना मानते हुए सबसे प्रेम करें यदि भुलवश किसी से कोई गलती हो जाये तो दैविय गण को अपनाते हुए क्रोध को अपने वश में कर बिना द्वेश्ता कर अहंकार को त्याग कर बिना लालच एंव स्वार्थ भाव के क्षमा करें। शत्रु से भी प्रेम भाव रखे, प्रेम एवं क्षमा वह भाव है जो इस धरा को स्वर्ग बना सकता है, मानव मन और समाज को निर्मल करता है। माना कि आज का मनुष्य काम, क्रोध, लोभ,मोह, माया के भावों का आदि हो चुका है जो उसे भ्रमित करते है इसलिए जरूरी यह है कि वह जान ले कि यह जिवन ईश्वर द्वारा प्रदत्त वह अनमोल देन है जिसे हंसी-खुशी जियें । जितना मिला है उसी में संतुष्ट रहकर जिये।
हम यह भी आपकों नहीं कहते कि सबके लिए जियों, जियों अपने लिए, परिवार के लिए लेकिन वह जिवन प्रक्रिया किसी के अहित की बैला पर फला-फुला ना हो।
स्वार्थ सर्वे हिताय सर्वे सुखाय का घौतक बने तभी मानव जाित का उद्धार संभव है।
अत: सर्वे हिताय, सर्वे सुखाई की यह भावना ही शत्रु या शत्रुता का विनाषकारी शस्त्र है इसलिए ध्यान रखे निम्न कारणों का जिसके कारण आपका कोई शत्रु बन सकता है या आप किसी के शत्रु हो जाते है।
-अज्ञानता ।
-किसी के अच्छे या बुरे कार्यो में विघ्न उत्पन्न करना।
-प्रितस्पर्धा।
-जाने अनजाने में शारीरिक, मानसिक, आिर्थक हानी।
-सफलता से जलन।
-गलतफहमी।
-सहायता (करना या ना करना)
-धोखा देना।
-राजफास करना।
-विश्वाश को तोड़ना।
-हठधर्मिता।
-सामाजिक मान प्रतिष्ठा को ठेस पंहुचाना।
-स्वार्थी प्रवृत्ति।
-सच्चाई।
-झूठ बोलने पर।
-दया करने पर।
-चाहत पूर्ण ना होने पर।
-नर्फत करने पर।
-क्रोध करने पर।
-लालच करने पर।
-अंहकारी होने पर।
-सुन्दरता।
-किसी वस्तु एवं रूपयों का लेन-देन।
-कोई बात ना मानने पर।
-शर्त पूर्ण ना करने पर।
-वादा पूर्ण ना करने पर।
वैसे तो शत्रुता स्वाभािवक अर्थात जन्मजात एवं कृितम दो ही प्रकार की होती है यदि हम जन्मजात शत्रुता की बात करें तो यह शत्रुता हमें सांप एवं नेवलें से समझी जा सकती है तथा कृितम शत्रुता के प्रमुख कारण हम उपर बता चुके है।
जन्मजात शत्रुता को समाप्त करना मुश्किल काम है लेकिन कृतिम शत्रुता का समापन सर्वे हिताय, सर्वे सुखाय मन्त्र एवं प्रेमस्य धर्मो क्षमा के मुल मंत्र में निहीत है।
बहुत आनंद मिलता है किसी को क्षमा करके, आप भी किजिए।
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